Home विपक्ष विशेष सवालों के घेरे में राहुल की नेतृत्व क्षमता, 20 दिनों में कांग्रेस...

सवालों के घेरे में राहुल की नेतृत्व क्षमता, 20 दिनों में कांग्रेस को दूसरी बार मिली करारी हार

SHARE

राहुल गांधी क्या कांग्रेस पार्टी को खत्म करके ही दम लेंगे, आज यह सवाल बहुत जोर पकड़ रहा है। दरअसल वंशवाद के चलते देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष बने राहुल गांधी के पास न तो राजनीतिक समझ है और न ही राजनीतिक कौशल। ऐसे में वह मौजूदा हालात का आकलन ही नहीं कर पा रहे हैं और एक के बाद एक ऐसे फैसले कर रहे हैं, जिनसे उनके नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं। पिछले बीस दिनों में राहुल गांधी ने मोदी सरकार से दो बार पंगा लिया और दोनों बार हार का मुंह देखना पड़ा। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि देश के बच्चे-बच्चे को पता था कि अविश्वास प्रस्ताव और राज्यसभा के उपसभापति चुनाव के दौरान कांग्रेस को किसी भी सूरत में जीत नहीं मिलेगी, इसके बावाजूद राहुल गांधी ने मोदी सरकार को चुनौती दी और बुरी तरह हार गए।

उपसभापति चुनाव में विपक्षी एकता हुई तार-तार
राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अदूरदर्शिता एक बार फिर सामने आ गई है। 37 वर्षों से राज्यसभा के उपसभापति पद पर कांग्रेस का कब्जा था, जाहिर है कि हमेशा से राज्यसभा में कांग्रेस का दबदबा रहा है। अब यह स्थित नहीं है, राज्यों में कांग्रेस की सरकारें नहीं रहने से धीरे-धीरे उच्च सदन में कांग्रेस सांसदों की संख्या कम होने लगी और उसे इस बार उपसभापति के लिए दूसरे विपक्षी दलों के सहयोग की जरूरत थी। राहुल गांधी ने पहले किसी और दल के प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाने का प्रयास किया ताकि यह लगे कि कांग्रेस दूसरे दलों को साथ लेकर चलती है। सभी दलों को पता था कि जीत तो एनडीए प्रत्याशी की होनी है, इसलिए कोई भी दल राहुल गांधी के आह्वान पर आगे नहीं आया। मजबूरी में राहुल को कांग्रेस के बीके हरिप्रसाद को मैदान में उतारना पड़ा। अब नतीजा सबके सामने है, जिन दलों का साथ कांग्रेस को मिलने की उम्मीद थी, वे या तो एनडीए के साथ चले गए या फिर वोट ही नहीं दिया। बताया जा रहा है कि उपसभापति के चुनाव के दौरान बीजेडी, एआईएडीएमके और टीआरएस ने एनडीए के उम्मीदवार के पक्ष में वोटिंग की और आम आदमी पार्टी ने वोटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया। ऐसे में कांग्रेस की उम्मीदों को करारा झटका लगा।


अविश्वास प्रस्ताव में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी
मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को आए अभी बीस दिन ही हुए हैं। पिछले महीने 20 जुलाई को टीडीपी की तरफ से सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। उस समय भी राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधा था। उसका नतीजा भी सबके सामने हैं। भले ही राहुल समेत दूसरे नेताओं ने सरकार पर झूठे और मनगढ़ंत आरोप लगा कर कुछ वक्त के लिए वाहवाही लूट ली हो, लेकिन अंत में जब प्रधानमंत्री मोदी ने जवाब दिया तो सभी भी बोलती बंद हो गई। अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में औंधे मुहं गिर गया और साथ ही राहुल गांधी का दंभ भी टूट गया कि उनके पास विपक्ष की बहुत बड़ी ताकत है। उस दौरान भी बीजेडी और शिवसेना ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था।

क्या कांग्रेस को बहुत जल्दी खत्म करने के मूड में हैं राहुल गांधी?
कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी जिस तरह से मनमानी कर रहे हैं और ऊलजलूल फैसले कर रहे हैं, उनसे तो यही जाहिर हो रहा है कि वह कांग्रेस के उत्थान नहीं बल्कि पतन के लिए काम कर रहे हैं। राहुल गांधी को पता है कि उन्हें विपक्ष के नेता पसंद नहीं करते हैं, फिर भी कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने खुद को स्वयंभू तरीके से पीएम पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया। राजनीतिक हलकों में राहुल के इस बयान को अपरिपक्व बताया गया। इसी तरह 33 प्रतिशत महिला आरक्षण की बात करने वाले राहुल ने कांग्रेस कार्यसमिति में सिर्फ 15 प्रतिशत महिलाओं को ही जगह दी, इसकी हर जगह निंदा हुई। इसी CWC की जब पहली बैठक हुई तो राहुल के चाटुकार नेताओं ने उन्हें विपक्षी गठबंधन का पीएम पद का प्रत्याशी प्रोजेक्ट कर दिया। टीएमसी, सपा, बसपा समेत तमाम दलों ने जब इसका विरोध किया तो दो दिन बाद ही राहुल को कहना पड़ा की वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं है। इन सभी वाकयों सो कांग्रेस की साख को बट्टा लगा है। मतलब साफ है कि राहुल की हरकतें तो यही दिखाती हैं वह खुद ही कांग्रेस के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

राहुल गांधी का यही अपरिपक्व नजरिया उनके बड़े नेता बनने में बाधा बना हुआ है। कहा तो यहां तक जाने लगा है कि कहीं 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए राहुल गांधी का सफर शुरू होने से पहले ही खत्म तो नहीं रहा है। इसके भी पुख्ता कारण हैं, डालते हैं एक नजर- 

अखिलेश यादव नहीं मानते कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो कांग्रेस के राष्ट्रीय पार्टी होने पर ही सवाल उठा दिया है। महागठबंधन की स्थिति में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस को मिलने वाली सीटों की संख्या को लेकर हुए सवाल पर अखिलेश ने खुद ये सवाल कर दिया कि क्या उत्तर प्रदेश में कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है? अपने इस सवाल के साथ ही अखिलेश ने कांग्रेस को यह स्पष्ट संदेश दे दिया कि वह उम्मीदवारी के लिए राज्य में दो अंकों में सीटों की उम्मीद ना करे। गौर करने वाली बात है कि पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ सोनिया और राहुल की सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई थी और पिछले साल के विधानसभा चुनावों में वो दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई थी। ये तमाम चुनाव राहुल गांधी के चेहरे के साथ लड़े गए थे इसलिए समाजवादी पार्टी कांग्रेस को उसकी औकात बताने में जुटी है।      

कांग्रेस को 8 से अधिक सीटें नहीं
कांग्रेस को यह भी साबित करना होगा कि वो जिस सीट पर दावेदारी कर रही है वहां किस प्रकार से उसका उम्मीदवार सपा या बसपा के उम्मीदवार पर भारी पड़ सकता है। इतना ही नहीं कांग्रेस का जो भी उम्मीदवार होगा उसे सपा या बसपा के संभावित उम्मीदवारों को अपने पक्ष में प्रचार के लिए भी तैयार करना होगा। यानि कांग्रेस को हर मोड़ पर परीक्षाओं के दौर से गुजरते रहना होगा। एक प्रकार से मानें तो कांग्रेस को सपा और बसपा के इशारों पर नाचते रहना होगा और पार्टी अगर नहीं नाची तो उसे बाहर का रास्ता दिखाने से भी परहेज नहीं होगा। इस तरह से सोनिया और राहुल के अलावा कांग्रेस के चार से पांच बड़े नामों वाले नेता ही चुनाव लड़ पाएंगे। कांग्रेस की जो स्थिति है उसमें कार्यकर्ता स्तर से संघर्ष कर उठे एक भी नेता को टिकट मिल पाएगा, इसका सवाल ही नहीं उठता।

दशकों से लड़ने वाले अचानक साथ कैसे 
यह सर्वविदित है कि सपा-बसपा-आरएलडी और कांग्रेस कोई जनता का भला करने के मकसद से मिलकर लड़ने का विचार नहीं कर रहीं। इन सबके अंदर छिपी बस एक इच्छा इन्हें हाथ मिलाने को मजबूर कर रही हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता से दूर रखा जा सके। ये वही पार्टियां हैं जो अभी तक एक-दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाती थीं। याद कीजिए जब यूपी के पिछले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने सपा-बसपा पर ‘27 साल यूपी बेहाल’ नारे के साथ निशाना साधा था। फिर जब सपा और कांग्रेस ने अचानक चुनावी तालमेल किया था, तब भी दोनों ही पार्टियों ने मायावती को लेकर अलग-अलग राय जाहिर की थी। अखिलेश ने मायावती का मजाक उड़ाया था जबकि राहुल गांधी अखिलेश से सहमत नहीं थे। गौर करने वाली बात है कि मायावती ने उन दिनों कांग्रेस पर भी हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जनता यह भी देख रही है कि आज सपा से नजदीकी दिखा रही ये वही मायावती हैं जिन्होंने गेस्ट हाऊस कांड में सपा पर अपनी मौत की साजिश रचने का आरोप लगाया था।    

भरभराकर गिरेगा खोखली नींव पर बन रहा गठबंधन 
दरअसल महागठबंधन का निर्माण एक खोखली नींव पर हो रहा है। इस कवायद में शामिल नेता जनता को दिखाना चाहते हैं कि वे एकजुट हैं। लेकिन सच ये है कि इनमें हर मुद्दे पर टकराव है। इनके बीच का विरोधाभास इससे पता चलता है कि एक तरफ तो ये प्रधानमंत्री का उम्मीदवार पहले तय नहीं करना चाहते, वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी खुद को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बताने से नहीं हिचकते। इतना ही नहीं बसपा भी मायावती को अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश कर देती है। अलग-अलग पार्टियों के बीच टकराव दिखने का जनता में सही मैसेज नहीं जाएगा, ये सोचकर विपक्षी पार्टियां फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहती हैं।  लेकिन इनके नेताओं की अपनी-अपनी सत्तापरक महत्वाकांक्षा है जो उभरकर सामने आ ही जाती है और इसके साथ ही उतर जाता है सच्चाई पर लगा पर्दा।    

कांग्रेस का हाल सियासत के भिखारी जैसा
सपा प्रमुख अखिलेश यादव को यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कांग्रेस को वही सीटें मिलेंगी जो सपा-बसपा और आरएलडी के समझौते के बाद बचेंगी। यानि ये कह सकते हैं कि तीनों ही पार्टियां मिलकर कांग्रेस को अपना जूठन देने की बात कर रही हैं। लेकिन कांग्रेस की हालत देखिए कि अपने इस अपमान पर भी चुप रहना उसकी मजबूरी है। समाजवादी पार्टी दरअसल कांग्रेस से तीन साल पहले बिहार चुनावों को लेकर हुए सीटों के तालमेल में अपनी उपेक्षा का बदला लेना चाहती है, जिसमें सपा की उम्मीदवारी के लिए 243 में सिर्फ दो सीटें छोड़ी गई थीं। हैरानी नहीं होगी कल को अगर यूपी में कांग्रेस के लिए 80 में से सिर्फ सोनिया-राहुल की दो ही सीटें छोड़ी जाएं। जाहिर है सबसे ज्यादा 80 सीटों वाले राज्य में ही कांग्रेस दलदल में धंस चुकी है। राहुल गांधी का चुनावी सफर शुरू होने से पहले ही खत्म हुआ नजर आ रहा है।

Leave a Reply