Home विचार कमाल है कामरेड! अब तो बापू और बुद्ध भी याद आने लगे…

कमाल है कामरेड! अब तो बापू और बुद्ध भी याद आने लगे…

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त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ने पर बवाल मचा हुआ है। वामपंथी विचारधारा के लोग इसको लेकर नई सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे है, लेकिन वह ये भूल रहे हैं कि अभी तो नई सरकार ने शपथ भी नहीं ली है। जाहिर है इसमें सरकार की साजिश के आरोप निराधार हैं। विशेष बात यह है कि शासन अभी भी कम्युनिस्टों के अधीन ही है और पुलिस व्यवस्था भी वही पुरानी है.. तो फिर ये हल्ला क्यों?

दरअसल त्रिपुरा की सड़कों पर खुलेआम हुई इस कार्रवाई का मतलब साफ है कि लोग वामपंथी शासन से परेशान थे और उन्होंने अपना आक्रोश इस तरह से जाहिर किया है। बड़ी बात ये है कि इसमें कोई हिंसा नहीं हुई, कोई विरोध नहीं हुआ और लोगों ने इस मूर्ति को बड़ी रूचि लेकर इस मूर्ति को गिरते हुए देखा… जश्न मनाया। दरअसल ये लोगों का आक्रोश है और लेनिन की मूर्ति गिराकर व्यक्त हो रहा है।

हालांकि कुछ वामपंथी पत्रकारों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस घटना की तुलना बामियान में तालिबानियों के द्वारा बुद्ध की मूर्ति ढाह दिए जाने से की। लेकिन ये उनका बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है? लेनिन न तो ईश्वर की श्रेणी में आते हैं और न ही यह कार्रवाई आतंकवादियों द्वारा की गई है। बापू की तो बात ही छोड़िये, क्योंकि बापू तो घोर अहिंसावादी थे और लेनिन?

लेनिन की मूर्ति टूटने की खबरें देश का सबसे बड़ा मुद्दा कैसे बन गया?
व्वादीमिर लेनिन की मूर्ति गिराए जाने की खबरें मीडिया में जितनी जोर-शोर से दिखाई जा रही हैं इससे ये साफ है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर वामपंथी गिरोह का पूरी तरह से कब्जा है। नॉर्थ ईस्ट की बड़ी से बड़ी खबरें भी एंकर शॉट में चलाने वाले पत्रकार सवाल उठा रहे हैं कि कल कोई गांधी की प्रतिमा के साथ ऐसा करे तो क्या होगा? कोई इसकी तुलना बामियान में बुद्ध की मूर्ति तोड़े जाने से कर रहा है तो कोई गांधी की विचारधारा के नष्ट होने से। हकीकत ये भी है कि जिस रूसी क्रांति के लिए लेनिन को जिम्मेदार कहा जाता है उस रूस में भी लेनिन का विरोध होता है। रूस में लेनिनग्राद शहर का नाम बदलकर सेंटपीट्सबर्ग कर दिया गया है, लेकिन अपने देश में आज यह सबसे बड़ा मुद्दा बन चुका है और मूूर्तियों पर राजनीति परवान चढ़ चुकी है। 

हिंसा के प्रतीकों को प्रतिमान मानने वालों को अहिंसा क्यों याद आ रही?
आज इन वामपंथियों को बुद्ध भी याद आ रहे हैं और गांधी भी। ‘गांधी’ नाम से इन्हें तो इतनी नफरत थी कि इन्हीं वामपंथियों ने त्रिपुरा में दस साल पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की प्रतिमा पर कालिख पोत दी थी।

गौरतलब है कि लेनिन की मूर्ति सरकारी तौर से रूसी क्रांति की 70 वीं वर्षगांठ पर 1 नवंबर 1987 में नई दिल्ली में लगाई गई थी और इसका अनावरण तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने किया था।

वामपंथियों की एक हकीकत ये भी है कि मां दुर्गा की मूर्ति तोड़ना इनके लिए धर्मनिरपेक्षता होती है। अमर जवान ज्योति तोड़ना देशभक्ति होती है, गणेशजी के पंडाल जलाना साम्यवाद होता है, देश के टुकड़-टुकड़े करने का नारा उदारवाद हो जाता है, सेना को रेपिस्ट कहना अभिव्यक्ति की आजादी हो जाती है, बस एक किसी खूनी विचारधारा रखने वाले इंसान की मूर्ति तोड़ना देशद्रोह हो जाता है।

बुद्ध और गांधी को गाली देने वालों को बुद्ध-गांधी के विचार क्यों भाने लगे?
वामपंथियों के दोहरे चरित्र तो इससे भी साफ होता है कि वह महात्मा गांधी की तुलना अब लेनिन से करने लगा है। अंहिसा के पुजारी की तुलना एक निरंकुश, क्रूर तानाशाह से? गौरतलब है कि केरल, बंगाल और त्रिपुरा में लाखों लोगों की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई थी कि वे उनकी विचारधारा को नहीं मानते थे। सैकड़ों बीजेपी और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सरेआम मारा गया तब इन्होंने एक आवाज नहीं निकाली थी। सरेआम गोहत्या का समर्थन करने वाले एक मूर्ति के गिरने से इतने आहत हैं कि उन्हें गांधी की अहिंसा याद आ रही है और भारत को बुद्ध का देश बता रहे हैं। बहरहाल वामपंथियों के लिए हिंसा के इस प्रतीक का ध्वस्त किए जाने की छटपटाहट उचित भी है, लेकिन गांधी को लेनिन से जोड़ने की साजिश बेहद खतरनाक है।

जिंदा व्यक्तियों को मारने वाले आहत क्यों हैं हिंसक विचारधारा के पोषक?
वामपंथी सोच न मानने वाले का सत्ता में आते ही नरसंहार करने वालों की बौखलाहट पर भी सवाल हैं। त्रिपुरा में ही 2017 में दो पत्रकारों- सुदीप दत्ता भौमिक और शांतनु भौमिक की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई कि एक ने सरकार के वित्तीय अनियमितताओं और भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर किया था। शांतनु भौमिक को भी सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि वे इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के एक प्रदर्शन को कवर करने गए थे। इसी तरह सैकड़ों बीजेपी कार्यकर्ताओं और आरएसएस के सदस्यों को निशाना बनाया गया। 30 साल बाद भी उन चार आरएसएस कार्यकर्ताओं के अवशेष तक नहीं मिले हैं जिन्हें मारने के आरोप त्रिपुरा की सरकार पर लगे थे। 

मूर्ति पूजा और पूजकों का विरोध करने वाले आज मातम क्यों मना रहे?
दरअसल ये वामपंथियों के दोहरे चरित्र को दर्शाता है। मूर्ति पूजा और मूर्ति पूजकों का विरोध कर स्वयं को प्रगतिशील बताने वाले आज मातम मना रहे हैं। भगवान राम को मिथक मानने वाले एक मूर्ति गिरने से इतने परेशान हैं कि ये भारतीय संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं। ये वही लोग ही तो हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति को हमेशा अपमानित करने का काम किया है। इन्होंने समाज को तोड़ा, संस्कृति से अलग किया.. इतना भड़काया कि लोग खुद अपने अराध्य के फोटो जलाने लगे,अपने घरों मे स्थापित अराध्य देव की मूर्तियों को तोड़ने लगे। अब यही मूर्ति तोड़ने का विरोध कर रहे हैं? बहरहाल तथ्य ये भी है कि 2014 में जब रूस के शहरों में लेनिन की दसियों मूर्तियां ढाह दी गईं, तब भी इन्हें दर्द नहीं हुआ था।

दरअसल साम्यवादी सिस्टम को पूरी दुनिया में दुत्कारा जा चुका है और भारत में भी वामपंथ झूठ की बुनियाद पर खड़ा वो खंडहर है, जिसे इतिहासकारों ने देश में ऐसा स्थापित किया था कि सत्य भी झूठा ही लगता है। बहरहाल त्रिपुरा की हार की तिलमिलाहट और लेनिन की मूर्ति का ध्वस्त किया जाना इन वामपंथियों के लिए किसी ‘भूकंप’ से कम नहीं है। हालांकि इसी बहाने इन हिंसक, क्रूर, निरंकुश वामपंथियों को बापू और बुद्ध का याद आना देश की राजनीति के लिए एक सुखद संकेत तो जरूर है।

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