Home चुनावी हलचल पीएम मोदी की लोकप्रियता से भयभीत अवसरवादी विपक्ष को गोलबंद करने का...

पीएम मोदी की लोकप्रियता से भयभीत अवसरवादी विपक्ष को गोलबंद करने का खेल

SHARE

राष्ट्रपति चुनाव में अपना उल्लू सीधा करने के लिए सियासत में पिटे हुए नेता गोलबंद होने की कोशिशों में जुटे हैं। ये लोग राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी या एनडीए के आधिकारिक उम्मीदवार के विरोध में एक साझा उम्मीदवार उतारना चाहते हैं। लोकतंत्र में अगर विपक्ष अपना उम्मीदवार उतारना चाहता है तो ये स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। लेकिन सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि उनकी मंशा के पीछे लोकतंत्र नहीं, बल्कि सियासी कुंठा है। वो इस बात से आतंकित हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सामने कहीं उनका बचा-खुचा सियासी करियर भी न चीं बोल जाए। ये ऐसा डर है जिसने कट्टर सियासी दुश्मनों को भी एक साथ, एक ही घाट पर पानी पीने के लिए मजबूर कर दिया है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए साझा उम्मीदवारी की कोशिशों में जुटे अधिकतर नेता वो हैं, जो अपनी-अपनी पार्टियों को ‘प्राइवेट(परिवार) लिमिटेड पार्टी’ की तरह चलाते रहे हैं। उनके यहां आंतरिक लोकतंत्र कभी अंकुरित भी नहीं हो सका। लेकिन आज अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा को लात मारकर ये लोग कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हैं, क्योंकि उनके सामने सियासी जीवनदान के लिए जुगाड़ ढूंढने की चुनौती है। इनमें से कई तो वो लोग हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। ठेठ भाषा में कहा जाय तो वह अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए दुश्मनों को भी गले लगाने के लिए तैयार हो गए हैं और इसका लक्ष्य सिर्फ एक है- मोदी विरोध।

सोनिया गांधी हुईं सक्रिय
विपक्षी पार्टियों के कथित महागठबंधन की सूत्रधार की भूमिका एक तरह से स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने निभानी शुरू कर दी है। तमाम मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सोनिया ने इस सिलसिले में कई विपक्षी नेताओं से एक दौर की बातचीत भी कर ली है। इस काम में उनके और गांधी-नेहरू परिवार के सियासी वारिश राहुल गांधी भी उनसे जितना बन पड़ता है अपनी मां का हाथ बंटा रहे हैं। जानकारी के अनुसार राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के लिए साझा उम्मीदवार के मसले पर सोनिया की बिहार के सीएम नीतीश कुमार, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और नेशनल कांफ्रेंस के अघ्यक्ष उमर अब्दुल्ला से बातचीत हो चुकी है। जल्दी ही वो बीएसपी सुप्रीमो मायावती, टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी और डीएमके नेता एम के स्टालिन से भी मिलने वाली हैं। उनकी लालू, मुलायम से भी फोन पर बात हुई है, जबकि एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार, सीपीआई के डी राजा, जेडीएस के एच डी देवगौड़ा और मुस्लीम लीग के महासचिव से पहले ही बातचीत हो चुकी है। वहीं राहुल इस मसले पर अपने दोस्त और यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव यादव से फोन पर बात कर चुके हैं, जिनकी दोस्ती को मार्च महीने में यूपी के मतदाता ऐतिहासिक रूप में नकार चुके हैं।

बीएसपी-एसपी साथ आने को तैयार
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने इन दोनों पारिवारिक पार्टियों की जो दुर्गति की है, उससे इनके होश उड़े हुए हैं। जब से यूपी का चुनाव परिणाम आया है, दोनों सियासी पार्टियों की ओर से बीजेपी के खिलाफ गठबंधन के संकेत दिए जा रहे हैं। मायावती तो इतनी उतावली हैं कि सर्किट हाऊस कांड को भुलाकर यहां तक कह चुकी हैं कि बीजेपी के विरोध में तो वो किसी भी पार्टी से हाथ मिला सकती हैं। शायद वो सोच रहे हैं कि अलग-अलग लड़कर पीएम मोदी और बीजेपी का सामना करना उनके बूते की बात नहीं रह गई है। एसपी-बीएसपी को एकजुट लाने के लिए कांग्रेस फिर से एड़ी-चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया है। दरअसल यही दोनों पार्टियां हैं जो लगातार 10 साल तक कुछ खास वजहों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार में डूबी केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सरकार का समर्थन करती रही थी।
टीएमसी-सीपीएम को साथ लाने की कोशिश
ममता बनर्जी की अगुवाई वाली टीएमसी ने सीपीएम की राजनीतिक हैसियत को धूल चटाकर ही पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियाई थी। लेकिन चर्चा है कि बीजेपी को चुनौती देने के लिए अब दोनों पार्टियां राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एक छतरी के नीचे आने को मजबूर हो सकती हैं। इस सिद्धांतविहीन गठबंधन को मूर्त रूप देने के लिए कांग्रेस भी अपना पूरा दमखम लगा सकती है। दरअसल राज्य में पीएम मोदी की पर्वत जैसी लोकप्रियता और बीजेपी को मिल रहे अपार जनसमर्थन से दीदी के तेवर ढीले पड़ गए हैं। ऊपर से पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान वामपंथियों ने जिस तरह से कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और केरल में अलग-अलग लड़ी, उससे कुछ कहने के लिए बचता नहीं कि, पीएम मोदी के व्यक्तित्व के सामने उसकी कोई विचारधारा टिकने वाली है।

कांग्रेस-लेफ्ट में बातचीत जारी
पिछले एक दशक से ज्यादा समय से कांग्रेस और वामपंथियों के बीच मौसमी दोस्ती-दुश्मनी का सिलसिला चल रहा है। कहने के लिए लेफ्ट के नेता खुद को वामपंथी विचारों के संरक्षक बताते हैं लेकिन राजनीति की धरती पर उनकी विचारधारा आज मोदी विरोध तक सिमट कर रह गई है। यही वजह है कि जब से पीएम मोदी की अगुवाई में राष्ट्र ने विश्व पटल पर एक के बाद एक झंडे गाड़ने शुरू कर दिए हैं, हर राष्ट्रविरोधी मामले को इन्हीं दोनों पार्टियों की अगुवाई में तूल दिया गया है। यही कारण है कि तमाम मीडिया रिपोर्ट्स बता रही हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के मामले में विपक्ष को गोलबंद करने में दोनों ही पार्टियां मुख्य भूमिका निभा रही हैं।

कांग्रेस-बीजेडी को साथ लाने की कोशिश
ओडिशा में कांग्रेस और बीजेपी लंबे समय से राजनीतिक के दो धूरी रहे हैं। लेकिन पीएम मोदी की लोकप्रियता ने वहां के सियासी समीकरण बदलकर रख दिए हैं। इस स्थिति को देखते हुए कुछ पार्टियां मोदी विरोध के नाम पर नवीन पटनायक को मनाने में जुट गए हैं। खबरों के अनुसार सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी को इसकी जिम्मेदारी दी गई है। हालांकि, नवीन पटनायक राजनीति के बहुत ही मजे हुए खिलाड़ी हैं, वो आसानी से इस सियासी मौकापरस्ती के बहकावे में आ जाएंगे ऐसा लगता नहीं है।

सियासी तिकड़म में जुटे शरद पवार
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार चाहते हैं कि तमाम विपक्षी दल मिलकर उन्हें एनडीए के आधिकारिक राष्ट्रपति उम्मीदवार के विरोध में उन्हें विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर पेश करें। हालांकि इस मसले पर जेडीयू के एक बड़बोले महासचिव के सी त्यागी के अलावा के किसी भी नेता ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं।

आंकड़ों में एनडीए का पलड़ा बहुत भारी
लेकिन सवाल है कि अपनी-अपनी राजनीतिक बचाने के लिए हो रही ये विपक्षी तिकड़मबाजी का सत्ताधारी बीजेपी की सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा? एक पल के लिए मान भी लिया जाय कि हार के भूत के डर से तमाम राजनीतिक दल आपसी दुश्मनी भुलाकर साझा राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए सहमत हो जाएं, लेकिन फिर भी आंकड़ों में एनडीए का ही पलड़ा भारी लगता है। क्योंकि बीजेपी को अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति भवन तक पहुंचाने के लिए करीब 20,000 वोटों की आवश्यकता है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इतने कम वोट एआईएडीएमके(करीब 60,000 वोट), टीआरएस (22,048 वोट), वाईएसआर-कांग्रेस (16,848 वोट) या बीजेडी (32,852 वोट) जैसे दलों के सहयोग से आसानी से जुटाया जा सकता है।

एनडीए को मिल सकता है एआईएडीएमके का समर्थन
अकेले एआईएडीएमके पास ही करीब 60,000 वोट हैं। मोदी विरोधी दल चाहे जितना भी हाथ-पैर मार लें, लेकिन तमिलनाडु की राजनीति की थोड़ी भी समझ रखने वाला समझता है कि वहां एआईएडीएमके और डीएमके को साथ लाना असंभव है। डीएमके यूपीए सरकार में लूट के दिनों से कांग्रेस की साथी रही है। राज्य में वर्तमान राजनीतिक हालात ऐसे हैं, जो एआईएडीएमके के लिए केंद्र से मधुर संबंध बनाकर रखने में समझदारी लगती है। इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं। अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी ने अपने मंत्रियों को साफ निर्देश दे दिया है कि केंद्र सरकार के साथ मिल-जुलकर काम करें, क्योंकि राज्य के विकास के लिए ये बहुत आवश्यक है।

टीआरएस ने भी दिए बीजेपी को समर्थन के संकेत
तेलंगाना की सत्ताधारी पार्टी टीआरएस ने भी बीजेपी को समर्थन देने के संकेत दिए हैं। अंग्रेजी अखबार फाइनेंसियल एक्सप्रेस के अनुसार टीआरएस ने ये कहकर सबकुछ साफ कर दिया है कि अगर केंद्र राज्य के विकास में सहयोग करेगा तो पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी का समर्थन करेगी। दरअसल पार्टी कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह के उस ट्वीट से भी बेहद भड़की हुई है, जिसमें उन्होंने कहा था कि तेलंगाना पुलिस मुस्लिम युवकों को फंसाने के लिए आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के फर्जी वेबसाइट का उपयोग कर रही है।

Leave a Reply