Home केजरीवाल विशेष पंजाब में पुंगी बजने पर बहकने लगे हैं केजरीवाल

पंजाब में पुंगी बजने पर बहकने लगे हैं केजरीवाल

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चुनावों में विरोधियों की विजय को स्वीकार करना बड़प्पन कहलाता है और ये भी साबित करता है कि आप जनादेश का कितना सम्मान करते हैं। साथ ही हारने वालों को आत्मचिंतन और मंथन करने का अवसर भी मिलता है। इसी परंपरा से लोकतंत्र मजबूत होता है। किसी की जीत पर संदेह करना या किसी की हार का उपहास उड़ाना अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं हैं। क्योंकि राजनीति में जनता का मन उसी दल की ओर जाता है जिससे उसे कुछ उम्मीद होती है, कुछ विश्वास होता है। लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के साथ पांच राज्यों के नतीजे आने के बाद विपक्षी दल जिस तरह की हाय तौबा मचाए हुए हैं, लोकतंत्र में वैसा कहीं देखने को नहीं मिलता है।

कुछ वर्ष पहले प्रकाश झा की फिल्म आयी थी राजनीति…उसमें एक दृश्य में हार की हताशा में डूबे एक पात्र को कहते सुना गया कि उसकी विरोधी पार्टी ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में गड़बड़ी कर उसके हिस्से के वोट अपनी तरफ कर रही है। फिल्म में तो स्क्रिप्ट के मुताबिक ये सीन कुछ-कुछ जंचा भी था, लेकिन असली जिंदगी में जब आईआईटी खड़गपुर से इंजीनियरिंग कर चुका एक नेता ऐसी बात करता है तो सिवाय हंसने के और कोई प्रतिक्रिया नहीं होता।

‘देखो जी हमारे हिस्से के 25-30 फीसदी वोट उन्होंने चुरा लिए।’ हताशा की इन्तेहा इतनी कि अब म्यूनिसपैलिटी के चुनाव तक में ईवीएम का इस्तेमाल बंद करने की आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। ये वही नेता हैं जो इलेक्ट्रानिक गैजेट्स का इस्तेमाल कर सोशल मीडिया की गाड़ी पर सवार होकर नेता बने हैं। इसी ईवीएम ने उन्हें दिल्ली में 70 में से 67 सीटें जितवाई थीं, तब कोई हो-हल्ला नहीं हुआ था कि देखो जी ईवीएम ने बीजेपी या कांग्रेस के हिस्से के वोट हमें दिलवा दिए।

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जिस सोशल मीडिया को अपना सबसे बड़ा हथियार मानते रहे। ये महाशय आज उसी सोशल मीडिया पर इनकी हार के क्या-क्या विश्लेषण हो रहे हैं, जरा उसे पढ़ लें तो अक्ल आ जाए। हरियाणा से यूपी में रहकर दिल्ली के मुख्यमंत्री तो बन सकते हैं केजरीवाल, लेकिन ये भूल गए कि पंजाब जैसे राज्यों में स्थानीयता का गहरा असर होता है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले केजरीवाल सिवाए अपने चेहरे और नाम के किसी को पनपने कहां देते हैं अपनी पार्टी में…हद तो ये कि पंजाब में मुख्यमंत्री के रूप में भी खुद का चेहरा अप्रत्यक्ष रूप से परोसने की कोशिश करते रहे। नतीजा ये रहा कि पंजाब जीतकर राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर नायक बनने का सपने देख रहे केजरीवाल को शायद दिन में तारे नजर आ गए और नतीजा ये अब बहकी बातें कर रहे हैं। अपनी प्रेस कांफ्रेंस में एनडीटीवी के प्रणय राय और शेखर गुप्ता की भविष्यवाणी का जिक्र करते हुए भूल गए कि इन्हीं प्रणय राय और शेखर गुप्ता बिहार चुनाव में अंतिम नतीजे आने पर अपनी भविष्यवाणियों के लिए दर्शकों से माफी मांगी थी।

आइए आपको जरा उन ईवीए के बारे में मोटा-मोटी जानकारी दे दी जाए जिसे लेकर केजरीवाल रो रहे हैं और मायावती आंदोलन की तैयारी कर रही हैं। चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल नया नहीं है। सबसे पहले ईवीएम का इस्तेमाल 1989-90 में मध्य प्रदेश और राजस्थान की 5-5 और दिल्ली की 6 विधानसभा सीटों पर प्रयोग के तौर पर किया गया था। तब से अब तक इस मशीन का इस्तेमाल अनवरत जारी है। इन मशीनों को चुनाव आयोग की पहल पर सरकारी कंपनियों भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड और इलेक्ट्रानिक कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने डिजायन किया है।

इनका उत्पादन भी यही दोनों कंपनियां करती हैं। जब ये मशीन फैक्ट्री से आती है तो ये सील होती है और इसमें एक माइक्रों चिप लगा होता है जिसे न तो रि-राइट किया जा सकता है और न ही उसे बदला जा सकता है। यानी किसी भी हालत में ईवीएम को इस तरह प्रोग्राम नहीं किया जा सकता कि बटन किसी और उम्मीदवार का दबे और वोट किसी और को जाए। इतना ही नहीं किसी भी विवाद की स्थिति में ईवीएम में ऐसी व्यवस्था है कि इसमें दर्ज वोट अगले दस साल तक इसकी मेमोरी में सुरक्षित रहते हैं, जिन्हें रिजल्ट ऑप्शन में जाकर देखा जा सकता है। चुनाव वाले दिन यानी मतदान शुरु होने से पहले हर पार्टी के पोलिंग एजेंट को एक मॉक पोल यानी नकली पोल कराकर दिखाया जाता है और उसकी संतुष्टि के बाद ही मतदान की प्रक्रिया शुरु होती है। हर मशीन पर एक यूनिक आडी नबंर होता है और पोलिंग एजेंट इन नंबरों को नोट भी करते हैं।

सवाल है कि बात-बात पर स्टिंग ऑपरेशन करने और वीडियो बनाने की सलाह देने वाले केजरीवाल के पोलिंग एजेंट क्या कर रहे थे। केजरीवाल की हताशा संभवता ये नहीं कि वे चुनाव हार गए, हताशा शायद इस बात को लेकर है कि ऐसे पोलिंग बूथ जहां उनके दस-दस कथित कर्मठ कार्यकर्ता मौजूद थे वहां भी उन्हें दो-चार ही वोट मिले। यानी इनके कार्यकर्ताओं को ही इन पर भऱोसा नहीं था और वो भी अपना वोट किसी और को दे आए।

केजरीवाल को एक पत्रकार की फेसबुक पोस्ट के आखिर में लिखे इस विश्लेषण को समझना चाहिए –
राजनीति में कुछ संयम, कुछ समझदारी, कुछ दबाव-दबंगई और कुछ मेलजोल बहुत जरुरी होते है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कामयाबी के लिये नायक तो चाहिए लेकिन बाकी जरुरी बातों पर भी उतना ही जोर होना चाहिए। गोवा आपके गड़बड़झाले का नतीजा है और पंजाब आपकी राजनीतिक सूझबूझ की कमी और केजरीवाल मार्का अड़ियलपन का सबूत।

 

-तसलीम खान

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