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अब कांग्रेस कैसे उठेगी ? उसके पास न तो विजन है और न ही नेतृत्व

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एक समय भारत की सबसे बड़ी पार्टी रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज लगातार पतन की ओर बढ़ती जा रही है। मीडिया विश्लेषण के अनुसार इसे महज संयोग कहें या कुछ और भारत में आज जो स्थिति कांग्रेस की है, वैसी ही स्थिति कमोवेश दुनियाभर में उस जैसी सभी पुरानी सत्ताधारी पार्टियों की भी हो चुकी हैं। वो तमाम पार्टियां और उसके नेता भी किसी न किस तरह से भ्रष्टाचार और तमाम विवादों में उलझे हुए हैं। लेकिन कांग्रेस का संकट सबसे गहरा इसीलिये हो चुका है क्योंकि उसके पास संगठन को फिर से मजबूत बनाने का न तो विजन है और न ही कोई सशक्त नेतृत्व।

एक वंश की पार्टी बन गई कांग्रेस !
आजादी का मिशन पूरा होते ही महात्मा गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को समाप्त करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने जिन लोगों पर सबसे अधिक भरोसा किया, उन्होंने ही उनके विचारों को ताक पर रख दिया। आजादी के बाद नेतृत्व जिन लोगों के हाथों में आया उन्होंने बने-बनाये संगठन का भरपूर दोहन अपने फायदे के लिये किया। पार्टी से मुकाबले के लिये कोई सशक्त धारा तैयार नहीं थी और स्वतंत्रता संग्राम की भावना से जुड़े होने के चलते आम जनता बदली हुई परिस्थियों में भी दशकों तक पार्टी के नेताओं पर आंख मूंद कर भरोसा करती रही। कालांतर में ये पार्टी सोची-समझी रणनीति के तहत नेहरू-गांधी परिवार की पार्टी बना दी गई। जैसे-जैसे समय बीतता गया, इसमें वंशवाद की परंपरा निरंतर हावी होती चली गई और कांग्रेस आम जनता से उतनी ही दूर होती चली गई।

भ्रष्टाचार के दाग गहरे हैं
स्वतंत्रता आंदोलन के महापुरुषों के व्यक्तित्व और उनकी वैचारिक सोच की मलाई कांग्रेस और उसके नेता 6 दशकों से भी अधिक समय तक खाते रहे हैं। इतने लंबे समय में ऐसा कोई भ्रष्टाचार नहीं बचा है, ऐसे कोई घोटाले नहीं बचें, न ही कोई विवाद ही बचा है जिससे कांग्रेस या उसके नेता नहीं जुड़े हों। कुछ मामलों में तो सीधे-सीधे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की भूमिका ही सवालों के घेरे में रही है। बोफोर्स दलाली कांड के आरोपों के चलते राजीव गांधी की कुर्सी गई थी। लेकिन कांग्रेस ने अपनी आदत नहीं बदली। 10 साल की सोनिया-मनमोहन की सरकार ने तो भ्रष्टाचार और घोटालों के सारे रिकॉर्ड ही तोड़ दिये।

‘अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस’ की भी दुर्गति
भारत से हजारों किलोमीटर दूर दक्षिण अफ्रीका की सबसे पुरानी ‘अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस’ (ANC) की स्थिति भी ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (INC)जैसी ही हो चुकी है। वहां की सत्ताधारी पार्टी ANC को राष्ट्रपति जैकब जुमा की सरकार बचाने में नाको चने चबाने पड़ रहे हैं। संसद में भारी बहुमत होने के बावजूद वो 8 बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर चुके हैं और बहुत कम मतों से अपनी सरकार को बचा पाये हैं। INC से थोड़ी पुरानी पार्टी ANC ने दक्षिण अफ्रीका को रंगभेद से मुक्ति दिलाने में सफलता पाई थी। उसके नेता नेल्सन मंडेला भी गांधी और दूसरे महापुरुषों के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे। ANC वहां अबतक किसी तरह से सत्ता में काबिज रही है लेकिन उसके नेताओं पर लग रहे आरोपों के चलते पार्टी की छवि भी बहुत अधिक धूमिल हो चुकी है। यानि जैसे कांग्रेस ने 6 दशकों से अधिक समय तक स्वतंत्रता संग्राम को भुनाया, वैसे ही ANC ने रंगभेद विरोधी आंदोलन का फसल काटा। लेकिन ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जैसे भारतीय जनता सजग हुई है, वैसे ही दक्षिण अफ्रीकी जनता भी अब जाग उठी है।

विश्व की बाकी पुरानी पार्टियों का भी हाल बेहाल
इतिहास को टटोलें तो एक समय UK में सशक्त रही लिबरल पार्टी अब पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी है। एक जमाने में पश्चिमी यूरोप में बहुत अधिक प्रभावी रहने वाली वामपंथी पार्टियों का असर भी अब बदले दौर में फीका पड़ चुका है। प्रगति के चलते वहां के कामगार धीरे-धीरे मध्यम वर्ग में शामिल हो चुके हैं। ठीक उसी तरह से जैसे 1991 में उदारीकरण (नरसिम्हा राव का फैसला) के चलते भारतीय समाज में परिवर्तन हुआ और लाखों-लाख की संख्या में गरीब नये मध्यम वर्ग में शामिल हो गये हैं। इस अवस्था ने न केवल उनकी हैसियत बदली है बल्कि उनकी सोच और विचार को भी बदल दिया है। ये वो वर्ग है जिसे कांग्रेस (गांधी-नेहरू परिवार) ने लगभग पांच दशकों तक झांसे में रखा था। ग्लोबलाइजेशन के चलते दुनिया भर में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव देखने को मिला है, इसका एक बढ़िया उदाहरण अमेरिका में भी देखने को मिला है। वहां डोनाल्ड ट्रंप जैसे व्यक्ति राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं जबकि उनकी पृष्ठभूमि को दूर-दूर तक राजनीति से वास्ता नहीं रहा है।

कांग्रेस के पास न तो विजन है और न ही नेतृत्व
पार्टी के पुनर्जीवित होकर फिर से सत्ता में लौटने का सबसे अच्छा उदाहरण मेक्सिको की Institutional Revolutionary Party का है। 71 सालों तक सत्ता में रहने के बाद भारी भ्रष्टाचार और अलोकप्रियता के चलते जनता ने इसे सत्ता से उठा फेंका था। लेकिन सुलझे हुए नेतृत्व और संघर्ष के चलते 12 साल बाद वो पार्टी की फिर से सत्ता में वापस हो गई थी। लेकिन INC की परिस्थिति बिल्कुल अलग है। सबसे बड़ी-सबसे पुरानी पार्टी होने का दंभ भरने वाली कांग्रेस का हाल ये हो चुका है कि एक अहमद पटेल को राज्यसभा तक पहुंचाने के लिये पार्टी सुप्रीमो सोनिया गांधी को सारे तिकड़म करने पड़ गये। गुजरात विधानसभा में पर्याप्त विधायक रहते हुए भी नौबत ये हो गई कि अगर दो विधायकों का वोट रद्द नहीं होता, तो पटेल बैकडोर से भी संसद नहीं पहुंच पाते। ये स्थिति इसीलिये हुई कि कांग्रेस पार्टी के पास आज न तो विजन है और न ही सशक्त नेतृत्व। कहा जाता है कि नौबत यहां तक पहुंच चुकी है कि निजी बातचीत में सोनिया के भरोसेमंद दरबारी भी राहुल गांधी के नेतृत्व में भरोसा नहीं करते। लेकिन आज बिल्ली के गले में घंटी बांधने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में बची ही नहीं है।

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