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लगातार हार से हताशा में घिरी कांग्रेस को बाहर निकालना राहुल के बस की बात नहीं

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लगता है कि 2014 के आम चुनाव में मिली ऐतिहासिक हार के सदमे से कांग्रेस पार्टी उबर नहीं पाई है। 2014 में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई थी। उसके बाद हुए कई राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। एक तरह से देश कांग्रेस मुक्त भारत की तरफ बढ़ रहा है। आज सिर्फ तीन राज्यों पंजाब, कर्नाटक, मिजोरम व एक केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में ही कांग्रेस की सरकार है। कर्नाटक में जल्द चुनाव होने वाले हैं, और वहां मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जिस तरह पांच वर्षों तक सरकार को चलाया है, उससे वहां कांग्रेस पार्टी का दोबारा सत्ता में आना मुश्किल लग रहा है। वहीं मिजोरम में भी इसी वर्ष चुनाव हैं, पूर्वोत्तर में जिस तरह बीजेपी का दबदबा बढ़ा है, मिजोरम में कांग्रेस की वापसी भी मुश्किल लग रही है। यही सब वजह हैं कि लगातार हार से कांग्रेस और उसके नेता हताशा में घिर गए हैं।

राहुल के भाषण में कुछ भी नया नहीं
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 18 मार्च को नई दिल्ली में कांग्रेस के अधिवेशन में भाषण दिया। राहुल के इस भाषण में कुछ भी नया नहीं था, जिसे देखकर लगे की वो देश का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं। राहुल ने यहां भी वहीं सब बातें कहीं, जो वो हर मंच से कहते रहते हैं। राहुल के भाषण में जोश कम हताशा ज्यादा नजर आ रही थी। आखिर यह राहुल गांधी ही हैं जिनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी लगातार रसातल की ओर जा रही है।

क्या मोदी सरकार पर हमले भर पाएंगे कार्यकर्ताओं में जोश?
कांग्रेस अधिवेशन में दिए गए अपने भाषण में राहुल गांधी ने ज्यादातर वक्त केंद्र सरकार पर हमले में गुजार दिया। यह भी कोई नई बात नहीं है, राहुल गांधी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष हैं, और इस हैसियत से सत्ताधारी दल पर आरोप लगाना, सरकार की हर योजना में खामी निकालना उनका काम है। अपने नेता द्वारा आरोप लगाने पर कार्यकर्ता थोड़ी देर के लिए तालियां बजा देंगे, लेकिन इससे उन्हें और क्या मिलेगा। क्या सिर्फ सरकार पर आरोप लगा देने भर से कार्यकर्ताओं में जोश भर जाएगा, और वे पार्टी की ताकत बढ़ाने में जुट जाएंगे?

कांग्रेस की जमीनी हकीकत से अनजान हैं राहुल गांधी
राहुल गांधी जमीन से जुड़े नेता नहीं है, उन्हें वंशवाद के चलते अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस पार्टी पर थोपा गया है। यही वजह है कि उन्हें देश के जमीनी मुद्दों की जानकारी ही नहीं है, तभी वो आलू की फैक्ट्री लगाने जैसे बयान देकर मजाक का पात्र बनते रहे हैं। जिस तरह उन्हें देश के जमीनी मुद्दों की जानकारी नहीं है, उसी तरह वो अपनी पार्टी की जमीनी हकीकत से भी अनजान हैं। उन्हें अपनी पार्टी के बारे में वही जानकारी है, जो उनके इर्दगिर्द रहने वाले उनके विश्वासपात्र नेता उन्हें बताते हैं। चुनावों में जिस तरह से वो प्रत्याशियों का चुनाव करते हैं, और चुनाव के दौरान जो मुद्दे उठाते हैं, कई बार वो स्थानीय नेताओं को रास नहीं आते। यही वजह है कि पंजाब में हुए विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंद सिंह ने उन्हें प्रचार नहीं करने दिया और अब इसी तरह कर्नाटक कांग्रेस के नेता भी राहुल से प्रचार नहीं कराने की मांग कर रहे हैं।

कई राज्यों में संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं
कहने को कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है, देश पर सबसे ज्यादा वक्त तक शासन करने वाली पार्टी है, लेकिन आज इस पार्टी की हालत बेहद खराब हो चुकी है। देश की सत्ता हासिल करने में उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों का अहम योगदान होता है। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। आज यूपी और बिहार दोनों में कांग्रेस का संगठन बेहद लचर हालत में है। हालत ये है कि जिस उत्तर प्रदेश से जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बने और अब सोनिया और राहुल गांधी खुद चुनाव जीतते हैं, वहां कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है। राज बब्बर जो यूपी में कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, वो पहले समाजवादी पार्टी में थे, वहीं उनसे पहले कांग्रेस की अध्यक्ष रही रीता बहुगुणा जोशी, बीजेपी में जा चुकी हैं और सरकार में मंत्री भी हैं।

सहयोगियों की बैसाखी के बिना कांग्रेस का नहीं है कोई वजूद
करीब 28 वर्ष पहले 1989 में उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी, लेकिन उसके बाद जब क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ तो कांग्रेस दोनों राज्यों में अपने दम पर कभी भी सरकार नहीं बना पाई। हालांकि जब भी सरकार में शामिल रही है तो क्षेत्रीय पार्टियों की छोटी सहयोगी बनकर। जब भी कांग्रेस ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा उसे मुंह की खानी पड़ी। 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी में कांग्रेस पार्टी ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा था और सिर्फ दो सीटें ही जीत पाई थी, एक सोनिया गांधी की और दूसरी राहुल गांधी की। पिछले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 105 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, और जीत मिली सिर्फ 7 सीटों पर। सीटों के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस की यह हालत आगे भी बदलती नजर नहीं आ रही है। बड़ा सवाल यह है कि सहयोगियों की बैसाखियों के भरोसे क्या कांग्रेस का केंद्र में दोबारा लौटने का सपना पूरा हो पाएगा?

उत्तर भारत के राज्यों में कैसे बदलेंगे हालात ?
राहुल गांधी चाहे कितने भी दावे करें लेकिन उनकी कार्यशैली से हमेशा पार्टी कार्यकर्ता हताश हुए हैं। हाल को कुछ चुनावों को देखें, गुजरात के चुनाव में राहुल ने प्रचार किया बीजेपी के साथ फाइट की। उसके बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड के चुनाव से राहुल गांधी पूरी तरह दूर रहे। पार्टी अध्यक्ष के इस रुख से कांग्रेस कांग्रेस कार्यकर्ताओं में घोर निराशा रही। राहुल गांधी का अंदाज की कुछ ऐसा है, उनका जब मन करता है पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच उपस्थित होते हैं और जब मन नहीं करता तो कोई उनसे मिल भी नहीं सकता। इसी सामंतवादी अंदाज की वजह से वो आम कार्यकर्ताओं से दूर हैं, और यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी की हालत उत्तर भारत समेत देश के ज्यादातर राज्यों में बदतर होती जा रही है।

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