Home विपक्ष विशेष स्वार्थ की राजनीति का दूसरा नाम है चंद्रबाबू नायडू

स्वार्थ की राजनीति का दूसरा नाम है चंद्रबाबू नायडू

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आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिए जाने को आधार बताते हुए तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए से अलग होने का फैसला किया। उनका यह फैसला चार वर्षों तक केंद्र सरकार का हिस्सा बने रहने के बाद आया है। दरअसल, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का राजैनतिक इतिहास टटोलने पर पता चलता है कि वह हमेशा स्वार्थ की राजनीति करते रहे हैं। जब से उन्होंने राजनीति में कदम रखा है, सिर्फ अपने लिए ही राजनीति की है, उन्हें आंध्र प्रदेश और देश की जनता से कोई लेनादेना नहीं है। अपने राजनीतिक फायदे के लिए राज्य के लोगों की भावनाओं को भड़काना, खेमा बदलना, धोखा देना, ब्लैकमेल करना और विश्वास तोड़ना उनके चरित्र का हिस्सा रहा है। आइए देखते हैं पिछले साढ़े तीन दशक का उनका राजनीतिक करियर किस तरह से ऐसे ही खतरनाक रंगों से भरा रहा है।

‘केंद्र जो भी देगा मंजूर होगा’ कहकर किया पालाबदल

स्पेशल स्टेटस के नाम पर एनडीए छोड़ने वाले ये वही चंद्रबाबू नायडू हैं जिन्होंने कभी कहा था कि केंद्र से जो मिलेगा, वह उन्हें मंजूर होगा। उन्होंने खुद यह भी माना था कि स्पेशल स्टेटस से अधिक लाभकारी स्पेशल पैकेज है।

केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि केंद्र फाइनेंस कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर आंध्र प्रदेश को विशेष पैकेज देने को तैयार है। गौर करने वाली बात है कि इसके तहत भी वो सारी सुविधाएं मिलती हैं जो स्पेशल स्टेटस के तहत दी जाती हैं। चंद्रबाबू ने इस मामले पर 360 डिग्री की पलटी मारी है, यह तेलगुदेशम कोटे के केंद्रीय मंत्री रहे सुजान चौधरी के बयान से भी स्पष्ट हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि विशेष दर्जे से अच्छा विशेष पैकेज है।

अपने ससुर का विश्वास जीतकर किया विश्वासघात

1980 में चंद्रबाबू नायडू की शादी आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक एनटी रामाराव की तीसरी बेटी से हुई। इसके कुछ ही महीने बाद चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस छोड़कर ससुर की पार्टी में आ गए थे। 1984 में जब भास्कर राव ने एनटी रामाराव के तख्तापलट की कोशिश की थी तो चंद्रबाबू नायडू ने ससुर के पक्ष में विधायकों को जुटाये रखने में भूमिका निभाई थी। इससे खुश होकर एनटी रामाराव ने अपने इस दामाद को अपना राजनीतिक वारिस बना दिया। इसके बाद तो अगले कुछ ही सालों में चंद्रबाबू नायडू की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का रंग दिखने लगा। 1989 में चंद्रबाबू नायडू खुद विपक्ष के नेता बन गए।  महत्वाकांक्षा का रंग उन पर इतना हावी हो चुका था कि 1995 तक आते-आते उन्होंने तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक रहे अपने ससुर को ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया।  

एनटी रामाराव का तख्ता पलटकर खुद बने थे मुख्यमंत्री

राजनीति में चंद्रबाबू नायडू का असली रूप क्या है, यह इस बात से पता चलता है। जिस सुसर को चंद्रबाबू नायडू भगवान मानते थे, जिसके सहारे राजनीति में वे आगे की ओर बढ़ते गए एक दिन उसी ससुर का तख्ता पलटने में उन्हें जरा भी हिचकिचाहट नहीं हुई। 1 सितंबर 1995 को वे ना सिर्फ तेलुगू देशम पार्टी के मुखिया बन बैठे, बल्कि बड़े शातिराना तरीके से यह इंतजाम भी कर लिया कि एनटी रामाराव की दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती उनके लिए कभी सियासी खतरा ना बन सकें। तब एनटीआर और उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती ने नायडू को पीठ में खंजर भोंकने वाला और औरंगजेब बताया था।

झूठ की राजनीति में महारत

चंद्रबाबू नायडू अपनी राजनीति में झूठ के सहारे भावनाएं भुनाने की कोशिश करते रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने यह बताने की कोशिश की थी कि केंद्र सरकार उनके साथ कैसा सौतेला व्यवहार करती रही। उन्होंने कहा कि वे 29 बार दिल्ली गए लेकिन केंद्र सरकार ने हमेशा उनकी अनसुनी की। लेकिन खबरों की मानें तो प्रधानमंत्री ने ख़ुद 20 मिनट तक नायडू से फोन पर बात की थी और उन्हें उनके फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था।

सत्ता की मलाई खाने में चंद्रबाबू का विश्वास

चंद्रबाबू नायडू की राजनीति का इतिहास बताता है कि सत्ता की मलाई चाटने में उनका विश्वास रहा है। केंद्र में भी वो इसी आधार पर साथ आते रहे हैं और साथ छोड़ते रहे हैं। 1998 में वे संयोजक का पद छोड़े बिना ही संयुक्त मोर्चा से अलग हो गए थे। तब से लेकर आज तक राजनीति में उनका रुख कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में रहा है। 1990 के दशक के आखिर में उनकी पार्टी एनडीए का हिस्सा बनी थी। लेकिन 2004 में उन्होंने एनडीए से अलग होने का फैसला किया था। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी। उसके बाद उन्होंने टीआरएस से लेकर लेफ्ट तक के साथ पैक्ट किया। 2013 में जब उन्होंने एक बार फिर बीजेपी की ओर हाथ बढ़ाया तो उम्मीद की गई उन्होंने बीजेपी की विकासवादी राजनीति को महसूस किया है। लेकिन अब एनडीए से बाहर होकर वो एक बार फिर साबित कर गए हैं कि जिस थाली में वो खाते हैं उसी में छेद करने की उनकी सियासी फितरत रही है।

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