‘असहिष्णुता’ शब्द आप भूल तो नहीं गए। बुद्धिजीवियों के एक गैंग ने पहली बार देश को बताया था कि ‘असहिष्णुता’ क्या चीज होती है। यह बुद्धिजीवी गैंग अचानक सक्रिय हो गया। जगह-जगह विरोध, घड़ियाली आंसू और गुस्से का प्रदर्शन। इस गैंग ने सम्मान लौटाने को आंदोलन का रूप दे दिया। अखबार, टीवी, सोशल मीडिया हर जगह बुद्धिजीवियों का क्षोभ नज़र आने लगा। उस समय पूरा देश या तो असहिष्णुता के समर्थन में था या विरोध में। मोदी सरकार को घेरने का इसे ब्रह्मास्त्र मान लिया गया था। ये अलग बात है कि मुट्ठी भर तथाकथित बुद्धिजीवियों के गैंग ने देश भर में माहौल पैदा करने की कोशिश की। आइये शांति के इस माहौल में इसकी पड़ताल करते हैं कि असहिष्णुता गैंग का आखिर सच क्या है?
असहिष्णुता तो बहाना था, पीएम मोदी पर निशाना था
साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या और दादरी में अखलाक के मारे जाने को असहिष्णुता के माहौल का प्रतीक बताया गया। कलबुर्गी की हत्या के बहाने हंगामा खड़ा किया गया कि देश में वैचारिक आजादी खतरे में है। यह बुद्धिजीवी गैंग मोदी सरकार को गुनहगार ठहराकर उसे अलोकप्रिय बनाने की पुरजोर कोशिश करता रहा। प्रचंड बहुमत वाली मोदी सरकार का इस घटना से कोई लेना देना था भी कि नहीं, इस बात की भी पड़ताल करने की कोशिश नहीं की गई।
गुनहगार राज्य सरकार, निशाना केंद्र सरकार पर
अगला सवाल दादरी से उठता है कि क्यों अखलाक की हत्या की घटना के लिए केंद्र सरकार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया गया? इस घटना की जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी, लेकिन अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार से बुद्धिजीवी गैंग को कोई शिकायत नहीं रही। ऐसा लगता है मानो पूरी तरह से सोच समझकर विरोध की तैयारी की गयी थी क्योंकि ऐसा अनायास नहीं हो सकता कि खास किस्म के लोग एक जैसी सोच और भाषा के साथ अचानक एक समय में बोलना शुरू कर दें।
विरोध के बहाने राजनीतिक लक्ष्य साधने की कोशिश
साहित्यकारों की इस बहुत छोटी जमात ने ऐसा समां बांधा मानो पूरा साहित्य समाज ऐसी ही सोच रखता हो। ये चाहते तो एक ही दिन अपने इस्तीफे गिना सकते थे। लेकिन, इन्हें हर दिन सुर्खियां बनना था, अखबारों में आना था, टीवी पर छाना था। इसलिए हर दिन कोई न कोई साहित्यकार सम्मान लौटाने का नाटक करने लगा। ये सम्मान तो लौटाते थे, लेकिन उसके साथ दी गयी रकम नहीं लौटाते थे। उसकी चर्चा तक नहीं करते थे। ये लोग वही थे जो बहुत पहले से नरेंद्र मोदी को दुनिया में बदनाम करने की कोशिशों में जुटे रहे हैं। सम्मान लौटाने का अभियान भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ विश्वस्तर पर चलाए जाते रहे अभियान का ही हिस्सा साबित हुआ। इसमें महज 40 लोग ही शरीक हो पाए।
मोदी को वीजा न देने के लिए यही ‘बुद्धिजीवी’ चाट रहे थे अमेरिका के तलवे
क्या आप उस घटना को भुला सकते हैं जिसमें इसी देश के बुद्धिजीवियों ने चिट्ठी लिखकर अमेरिकी सरकार से गुहार लगाई थी, उनकी मनुहार कर रहे थे कि नरेंद्र मोदी को वीजा नहीं दिया जाए? तब भी यही लोग थे, अब भी यही लोग थे जो ‘असहिष्णुता’ के नाम पर सम्मान लौटाने का आंदोलन करते दिख रहे थे। दोनों ही घटनाएं उनकी दिवालिया हो चुकी सोच को सामने रखता है।
महज 40 लोग ही पुरस्कार लौटाने के ड्रामे में शामिल हुए
असहिष्णुता का राग छेड़ते हुए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वालों की संख्या 40 से ज्यादा नहीं हो सकी। 13 इतिहासकार और कुछ वैज्ञानिकों ने भी राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाए, जबकि दिबाकर बनर्जी सहित 10 फिल्मकारों ने नेशनल अवॉर्ड लौटाए। फिर भी कुल मिलाकर यह संख्या 60-65 पर सिमट गयी। पुरस्कार लौटाने का यह आंदोलन दरअसल बुरी तरह से विफल साबित हुआ। न जनता उनके साथ खड़ी हुई और न ही देश का विशाल साहित्य समाज। ये खुद अलग-थलग पड़ गये।
सम्मान लौटाना कुर्बानी नहीं, मोदी सरकार के लिए आम जनता के विश्वास के प्रति तिरस्कार
बुद्धिजीवियों का यह कदम पुरस्कारों की कुर्बानी नहीं थी, बल्कि मोदी सरकार के प्रति आम जनता के विश्वास के खिलाफ तिरस्कार था। दोष सरकार जनित कथित माहौल पर मढ़ा जा रहा था, जबकि सच्चाई कुछ और थी। खुद इन कथित बुद्धिजीवियों के दिमाग में फलते-फूलते विषाणु-परमाणु बमों ने देश में दहशत और असुरक्षा का माहौल पैदा किया।
नहीं पच रहा था मोदी का सीएम से पीएम बनना
ये बुद्धिजीवी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि जिस नरेंद्र मोदी ने इनके विरोध के बावजूद गुजरात में तीन बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री की कुर्सी बरकरार रखी थी, वही मोदी अब दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। उन्हें ख़तरा था कि कहीं गुजरात का रिकॉर्ड दिल्ली में भी न बन जाए। बस, इस बुद्धिजीवी गैंग की छाती पर सांप लोटने लगे। ये बेचैन हो उठे। जमने से पहले ही नरेंद्र मोदी सरकार को उखाड़ फेंका जाए, उसे अस्थिर किया जाए, उसे टिकने नहीं दिया जाए। इसी मकसद से ये मान-सम्मान का जुमला उछाला गया, आंदोलन के नाम पर असहिष्णुता का माहौल पैदा किया गया।
चुनाव देखते ही मोदी विरोधी हो जाते हैं सक्रिय
चाहे जेएनयू का प्रकरण हो या फि रोहित वेमुला या फिर ये सम्मान लौटाने जैसी बेवजह की हरकत- इन घटनाओं का संबंध हमेशा चुनाव से रहा है। चुनाव सामने आते ही मोदी विरोधी हर तरह से सक्रिय हो जाते हैं। राजनीतिक दल सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने में जुटते हैं, क्षेत्रियता या धार्मिक वैमनस्य बढ़ाने वाले बोल-जुमले बोलने का दौर शुरू हो जाता है और मोदी विरोधी बुद्धिजीवी भी इस आंच को सेंकने लग जाते हैं। बिहार में विधानसभा का चुनाव था जब 2015 में यह असहिष्णुता का तान छेड़ा गया था। चुनाव खत्म, पैसा हजम।
साहित्य अकादमी का सम्मान लौटाने वाले चेहरे
- उदय प्रकाश
- अशोक वाजपेयी
- नयनतारा सहगल
- काशीनाथ सिंह
- जीएन देवी पुस्तक
- वरीयाम संधू पुस्तक
- अमन सेठी
- जीएन रंगनाथ राव
- कृष्णा सोबती
- मंगलेश डबराल
- राजेश जोशी
- गुरु बच्चन सिंह भुल्लर
- आत्मजीत
- अजमेर सिंह औलख
- सारा जोसफ
- डी एन श्रीनाथ
- मुनव्वर राणा
- गुलाम नबी खयाल
‘स्टार वार’ का फंडा भी काम न आया
असहिष्णुता का माहौल दिखाने के लिए, समझाने के लिए मोदी विरोधी गैंग सिर्फ सम्मान लौटाने का आंदोलन ही नहीं करते, बल्कि ‘स्टार वार’ को भी अंजाम देते हैं। शाहरुख खान और आमिर खान जैसे फिल्मी सितारों को सामने किया गया। शाहरुख ने यह कहकर आग में घी डाला कि देश में असहिष्णुता बढ़ गई है तो आमिर खान ने अपनी पत्नी के हवाले से कह डाला कि सुरक्षा को लेकर वह इतनी चिंतित थीं कि देश छोड़ने तक का सुझाव दे रही थीं। जाहिर है इस विषय पर सोशल मीडिया में घमासान हुआ।
अनुपम खेर ने ‘बुद्धिजीवी गैंग’ को दिया करारा जवाब
पक्ष-विपक्ष बने। माहौल गरम रहा। इस दौरान आमिर के बयान पर अनुपम खेर ने बुद्धिजीवी गैंग को करारा जवाब दिया। उनके साथ मनोज तिवारी ने भी मोर्चा खोल दिया। अभिनेता अनुपम खेर ने आमिर खान से तीन सवाल पूछे :
- क्या आपने कभी किरण से यह पूछा कि वह किस देश जाना चाहती हैं?
- क्या आपने उन्हें बताया कि इस देश ने आपको आमिर खान बनाया है?
- क्या आपने किरण को यह बताया है कि आपने देश में इससे भी बुरे दौर को जीया है, लेकिन पहले कभी देश छोड़ने का विचार आपके मन में नहीं आया?
वहीं भोजपुरी अभिनेता और सांसद मनोज तिवारी का मानना था कि आमिर खान ने भारत माता का अपमान किया है और करोड़ों लोगों को तकलीफ पहुंचाई है। उन्होंने कहा कि अगर आमिर खान को भारत में डर लगता है तो वे वहां जाने के लिए स्वतंत्र हैं जहां उन्हें शांति मिलती है।
फिल्म से जुड़े अवॉर्ड वापस करने वाले
- अरुंधति राय
- कुंदन शाह
- सईद मिर्जा
- तपन बोस
- दिबाकर बनर्जी
- आनंद पटवर्धन
- कीर्ति नखवा
- हर्षवर्धन कुलकर्णी
- निशिता जैन
- परेश कामदर
- वीरेन्द्र सैनी
- अजय रैना
- रंजन पालित
- मनोज लोबो
- संजय काक
- मधुश्री दत्ता
- प्रदीप किशन
- श्रीप्रकाश
- विवेक सच्चिदानंद
- अमिताभ चक्रवर्ती
- रफीक इलियास
- सुधाकर रेड्डी
- अनवर जमाल
- सुधीर पलसाने
- अजय रैना
- मनोज निथरवाल
- ईरनधर मल्लिक
- सत्यराज नागपाल
कभी साबित नहीं हुई ‘असहिष्णुता’
मजे की बात ये है कि असहिष्णुता की चर्चा तो की जा रही थी, लेकिन इसे कोई साबित नहीं कर पा रहा था। दरअसल मोदी सरकार के खिलाफ असहिष्णुता के मुद्दे को उभारने का ये एक सुनियोजत षडयंत्र कुछ समय से रचा जा रहा था। गजेंद्र चौहान के पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान-FTII के अध्यक्ष बनने, पहलाज निहलानी के सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बनने और दादरी कांड के बहाने ऐसी हवा बनाने की कोशिश लगातार हो रही थी।
‘बुद्धिजीवियों’ जवाब दो
वहीं ऐसी कोशिशों से जुड़े लोग ऐसे कई मामलों से जुड़े प्रासंगिक सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे थे:
- नरेंद्र मोदी को कोई इमरान मसूद जैसा कांग्रेसी नेता खुलेआम बोटी-बोटी काटने की धमकी देता है, तो असहिष्णुता के झंडाबरदारों की जुबान क्यों नहीं खुलती है?
- जब एक खास समुदाय की बहुतायत वाले रामपुर में, जहां से समाजवादी पार्टी के एक खास नेता आते हैं, वहां बहन-बेटियों की इज्जत से सरेआम खिलवाड़ होता है, तो इनकी आवाज क्यों बंद रहती है?
- कांग्रेस के कार्यकर्ता जब बीफ पार्टी कर कानून को सरेआम चुनौती देते हैं तब ये आक्रामक क्यों नहीं होते?
- जाकिर नाइक जब इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन की आड़ में सांप्रदायिकता की आग को भड़काने में जुटा था, तब इनके मुंह पर ताले क्यों लगे थे?
- 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब सिखों का सरेआम कत्लेआम हुआ था, तब ये सहिष्णु लोग कहां थे?
- फिल्म दंगल में काम करने वाली बाल कलाकार जायरा वसीम को जब कट्टरपंथियों से माफी मांगनी पड़ती है तब वहां की असहिष्णुता इन बुद्धिजीवियों को नहीं दिखती।
- जब केरल में एक के बाद एक बीजेपी और संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं को सरकारी संरक्षण में मारा जाता है तब वहां की असहिष्णुता नहीं दिखती क्योंकि उनकी नजर में केरल में ‘प्रगतिशील’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ काम कर रही होती है।
हर परीक्षा में खरे उतरे मोदी
ये बुद्धिजीवी किसी निर्वाचित मुख्यमंत्री को ‘मौत का सौदागर’ कहने को असहिष्णुता का उदाहरण नहीं मानते। एक के बाद एक झूठे मुकदमों में फंसाने की कोशिश होती रही, लेकिन नरेंद्र मोदी हर परीक्षा में खरे उतरे। हर साजिश उनके आगे दम तोड़ गयी। क्या मीडिया, क्या बुद्धिजीवी सबके सब नरेंद्र मोदी को कुख्यात बनाने में जी-जान से जुटे रहे।
सवा सौ करोड़ दिलों में बसते चले गये मोदी
पर हुआ क्या? मोदी खुद असहिष्णुता को बर्दाश्त करने को कभी तैयार नहीं रहते। उन्होंने ऐसी घटनाओं को हतोत्साहित किया। सबको साथ लेकर विकास की बात कही। नतीजा ये हुआ कि मोदी देश की सवा सौ करोड़ जनता के दिलों में बसते चले गये। कुख्यात होने के बजाए वे सुविख्यात और लोकप्रिय होते चले गये। फिर जैसे ही उन्हें बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, देश की फिजां ही बदल गयी। आम चुनाव में अभूतपूर्व बहुमत लेकर नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गये।
बेअसर रही असहिष्णुता मुहिम, हर चुनाव में जीते मोदी, हर सर्वे में मोदी ही मोदी
असहिष्णुता के मुहिम के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कभी घटी नहीं। लोग कोशिश करते रहे, पर कोई दाग लगा नहीं पाए। यही वजह है कि सत्ता में तीन साल रह चुकने के बावजूद अब तक कोई एंटी इनकम्बेन्सी पैदा नहीं हुई है जो तकरीबन हर महीने होते रहे सर्वे में उभरकर सामने आया है। सी-वोटर का ताजा सर्वे भी यही कहता है कि अगर अभी चुनाव हुए तो नरेंद्र मोदी को देशभर में 340 सीटें मिल सकती हैं। दरअसल यह झूठी असहिष्णुता, झूठे सम्मान की हार है।