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देश के टुकड़े-टुकड़े करना चाहती है कांग्रेस !

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”कश्मीर के लोग जब ‘आजादी’ की मांग करते हैं तो इसका मतलब और अधिक ‘स्वायत्तता’ है।’‘…कांग्रेस के पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम के इस बयान ने शांत होते कश्मीर को एक बार फिर सुलगा दिया है। कश्मीर समस्या को ‘धरोहर’ के तौर पर रखने वाले कांग्रेसी नेताओं की आखिर मंशा क्या है? क्या वे कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं? या फिर उन्हें शांत कश्मीर पसंद नहीं है? सवाल यह भी कि देश की एकता-अखंडता पर आघात करने वाले कांग्रेसी नेता जब साठ सालों तक देश की सत्ता में थे तो उन्हें ये ‘ज्ञान’ नहीं आया था? क्या उन्हें नहीं पता है कि उनके इस बयान का शांति की राह पर बढ़ रहे कश्मीर पर क्या असर होगा?

पी चिदंबरम ने क्यों किया स्वायत्तता का समर्थन?
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री के इस बयान से साफ हो गया है कि यह सोची-समझी साजिश के तहत दिया गया बयान है। उमर अबदुल्ला ने तो अपनी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के सम्मेलन में स्वायत्तता के लिए प्रस्ताव तक पारित कर दिया। उनके पिता फारूक अबदुल्ला ने तो यह तक कह दिया कि वे हिंदुस्तान जिंदाबाद नहीं बोलेंगे। जाहिर है कांग्रेस नेता के इस बयान के बाद कश्मीर में फिर से नफरत की आग भड़कने की आशंका है। दरअसल केंद्र सरकार के प्रयास से कश्मीर में आतंकियों का सफाया हो रहा है। अब गिने-चुने आतंकी ही बचे हैं और बातचीत की प्रक्रिया के लिए केंद्र सरकार ने पहल भी की है। इसके लिए पूर्व आईबी अधिकारी दिनेश्वर शर्मा ने प्रयास भी शुरू कर दिये हैं। ऐसे में पी चिदंबरम का यह बयान कश्मीर को सुलगाने की कोशिश नहीं तो क्या है?

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आतंकियों के हक में चिदंबरम ने उठाई आवाज
पी चिदंबरम के इस बयान से साफ है कि कांग्रेस कश्मीर में आतंकियों की मांग को समर्थन कर रही है। स्पष्ट है कि भारत से अलग होने और पाकिस्तान में मिलने की ख्वाहिश रखने वालों को पी चिदंबरम एक बार फिर से उकसा रहे हैं। आजादी मांग रहे लोगों के साथ स्वर मिला रहे हैं। दरअसल कांग्रेस इस हद तक गिर चुकी है कि उसे सत्ता में वापसी का कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। ऐसे में केंद्र सरकार की कोशिशों को विफल करना ही कांग्रेस का एक मात्र उद्देश्य लगता है।

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कश्मीर में शांति की पहल को पहुंचाया नुकसान
पी चिदंबरम के बयान का यह असर हुआ है कि जिन अलगाववादियों का हौसला गिर गया था, उनका जनाधार गिर रहा था और वह किसी काबिल नहीं रह गए थे, वे भी अब फिर से विद्रोही जुबान बोल रहे हैं। वे अब देश की सर्वोच्च अदालत को भी चुनौती दे रहे हैं। दरअसल जम्मू-कश्मीर के नागरिकों लिए अनुच्छेद 35 A में विशेष प्रावधान किए गए हैं जिसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई है। केंद्र का पक्ष जानने के बाद सर्वोच्च न्यायालय इस पर निर्णय सुनाएगी, लेकिन पी चिदंबरम के बयान के बाद अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने एलान किया है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला अनुच्छेद 35A के खिलाफ आता है, तो घाटी में इसके खिलाफ विद्रोह किया जाएगा।

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कांग्रेस की ‘दोगली’ नीति से समस्या बना कश्मीर
दरअसल कांग्रेस की ‘दोगली’ नीति के कारण एक ही देश में दो संविधान का प्रावधान किया गया। पहले तो सन् 1954 में 14 मई को राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा एक आदेश पारित करने संविधान में एक नया अनुच्छेद 35 A जोड़ा गया। ये अधिकार अनुच्छेद 370 के तहत दिया गया। यह अनुच्छेद राज्य विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह कोई भी कानून बना सकती है और उन कानूनों को अन्य राज्यों के निवासियों के साथ समानता का अधिकार और संविधान द्वारा प्राप्त किसी भी अन्य अधिकार के उल्लंघन के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके बाद कांग्रेस सरकार ने 1956 में जम्मू कश्मीर का संविधान बनवा दिया जिसमें स्थायी नागरिकता को परिभाषित किया गया। यही प्रावधान जम्मू-कश्मीर की शांति के लिए रोड़ा बन गया है।

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कांग्रेस की कुत्सित नीति ने आग में घी डाला
दरअसल कांग्रेसी राज के दौरान 1956 में जम्मू-कश्मीर के लिए अलग संविधान बनाया गया, जो कि भारत के किसी भी राज्य के लिए संभव नही है सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कुछ विशेष प्रावधानों को चुनौती दी गई है। इनमें राज्य से बाहर के किसी व्यक्ति से विवाह करने वाली महिला को संपत्ति का अधिकार नहीं मिलना। दरअसल, अभी ये नियम है कि कश्मीर से बाहर के किसी व्यक्ति से विवाह करने वाली महिला का संपत्ति पर अधिकार समाप्त हो जाता है, इतना ही नहीं उसके बेटे को भी संपत्ति का अधिकार नहीं मिलता है। जाहिर तौर पर यह कानूनी मामला है, लेकिन इसका विरोध अलगाववादी करते रहे हैं। पर अब पी चिदंबरम के स्वायत्तता वाले बयान ने आग में घी डाल दिया है।

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कांग्रेसी सरकारों ने कश्मीर समस्या को रखा जिंदा
दरअसल आज जो कश्मीर समस्या है वो सिर्फ कांग्रेस की देन है। भारत के विभाजन के समय इसका हल निकाल पाने में जवाहरलाल नेहरू की असफलता की देश भारी कीमत चुका रहा है। तब न तो दिल्ली में नेहरू सरकार और न ही श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला सरकार कभी इस बात को मान सका कि जम्मू-कश्मीर का भारत में पूरी तरह एकीकरण करने की जरूरत है। इस मामले में नेहरू में न तो साहस था न ही दूरदर्शिता थी। अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है जिसे अब तक क्यों कायम रखा गया है यह भी एक सवाल है। 1971 में भी भारत ने कश्मीर मुद्दे को हल करने का मौका गंवा दिया था। 1990 में हिंदुओं के नरसंहार के बाद की चुप्पी ने तो कट्टरपंथियों के हौसले को नये उत्साह से भर दिया था।

कांग्रेस के नाकाम नेतृत्व के कारण मुद्दा बना रहा कश्मीर
भले ही कांग्रेस और इसके साथी दलों के नेता धर्मनिरपेक्षता का राग अलापते रहें, लेकिन कश्मीर में इन्हीं के शासन काल में धर्मनिरपेक्षता की बलि चढ़ाई जा चुकी है। दरअसल बढ़ते कट्टरपंथ की वजह से ही 1990 में कश्मीर में हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया था और हिंदू औरतों के साथ बलात्कार किया गया था। धर्मनिरपेक्ष भारत के एक हिस्से में धर्म को लेकर ही अधर्म का नंगा नाच हो रहा था, लेकिन कांग्रेस की सरकार तब तमाशा देख रही थी। कश्मीर अगर आज सुलग रहा है तो कांग्रेस की अदूरदर्शिता और नाकाम नेतृत्व इसका कारण है।

नेहरू की छवि के लिए चित्र परिणाम

नेहरू को अपनी छवि की चिंता थी देश की नहीं
कश्मीर मुद्दे पर कांग्रेस की भूल की फेहरिस्त लंबी है। कश्मीर में जब भारतीय फौज कबाइली हमलावारों को खदेड़ रहे थे तो नेहरू ने संघर्ष विराम की घोषणा कर दी। यह फैसला अचानक क्यों की गई इसका को पुख्ता प्रमाण अब तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा माना जाता है कि ऐसा न किया गया होता तो आज कश्मीर का मुद्दा नहीं होता। जानकारों के अनुसार नेहरू ने अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि की चिंता की जिसके कारण यह फैसला लिया।

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नेहरू के कारण पाक अधिकृत कश्मीर बना
1947 के 21 और 22 अक्टूबर को जब पांच हजार पठान आदिवासियों (पाकिस्तान आर्मी की तरफ से) ने कश्मीर के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया तो महाराजा हरि सिंह ने IQA (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेसन) पर साइन कर दिया था। इसके बाद इंडियन आर्मी बड़े ऑपरेशन के लिए तैयार थी और बारामुला के हिस्सों को वापस भी ले लिया था। इससे श्रीनगर सुरक्षित हो गया, लेकिन इससे आगे बढ़ने के लिए नेहरू जी के आदेश चाहिए थे, जो उन्होंने नहीं दी। 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के दस्तखत वाला Instrument of accession यानि विलय पत्र स्वीकार करने के साथ ही जनमत संग्रह के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र में भेज दिया।

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शेख अब्दुल्ला-नेहरू की दोस्ती से उलझा कश्मीर
दरअसल यह शेख अब्दुल्ला से नेहरू की दोस्ती के कारण ही उन्होंने अपनी सेना को आदेश नहीं दिया। जब जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला का प्रभाव था तो वह पाकिस्तान की मदद को खड़ा हो गया। इसी कारण नेहरू के कार्यकाल में ही 1953 में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान की मदद करने के आरोप में गिरफ्तार भी करना पड़ा, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और नेहरू की गलती के कारण कश्मीर का मुद्दा उलझ गया।

नेहरू धारा 370 के लिए चित्र परिणाम

धारा 370 पर नेहरू ने की गलती
महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र पर हस्ताक्षर के साथ ही कश्मीर का भारत में विलय हो गया, लेकिन नेहरू ने शेख अब्दुल्ला की खुशी के लिए धारा 370 का प्रावधान स्वीकार कर लिया। दरअसल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर में नेहरू का आदमी माना जाता था। नेहरू ने कश्मीर को लेकर सभी नीतियां शेख अब्दुल्ला को ध्यान में रखकर बनाईं। शायद इसी वजह से महाराजा हरि सिंह को कश्मीर की बागडोर शेख अब्दुल्ला को सौंपनी पड़ी।

नेहरू और कश्मीर के लिए चित्र परिणाम

सरदार पटेल के हाथ बांध दिये गए
धारा 370 को स्वीकार तो कर लिया गया, लेकिन जम्मू और लद्दाख में हिंदू आबादी ज्यादा थी। जम्मू में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रजा परिषद ने 370 का विरोध शुरू किया। बाद में पंडित नेहरू की कैबिनेट छोड़कर 1951 में जनसंघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 के विरोध की मुहिम को और तेज किया। सरदार पटेल ने भी इस मसले को गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में लाकर सुलझाने की योजना बनाई, लेकिन बाद में नेहरू के दखल के चलते मामला एक बार फिर लटक गया। जिसका नतीजा आज पूरे देश के अलावा पूरी दुनिया भी देख रही है।

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