Home विचार नोटबंदी की आपातकाल से तुलना ठीक नहीं

नोटबंदी की आपातकाल से तुलना ठीक नहीं

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प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर, 2016 को विमुद्रीकरण की घोषणा करके काला धन, भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया है। इससे देश की जनता को नकदी की किल्लत से रोजाना दो-चार होना पड़ रहा है। गांव, गरीब, किसान, दिहाड़ी मजदूर और छोटे-छोटे कारोबारियों के नाम पर विमुद्रीकरण को पूरा विपक्ष गलत बता रहा है। इसके लिए रोज नए-नए कुतर्क लाए जा रहे हैं।

कालाधन और भ्रष्टाचार ही नहीं नशीला पदार्थ, अवैध हथियार और जाली नोटों के कालाबाजार में डूबे लोगों पर विमुद्रीकरण कड़ा प्रहार है। इसे देश की जनता समझ रही है। किल्लत को झेल रहे लोग प्रधानमंत्री के फैसले के साथ हैं। किसी को शक सुबहा है तो राजनीतिक पार्टियों और उसके नेताओं को। वे नोट बंदी के फैसले पर तत्काल रोक लगाने के लिए तरह-तरह के कुतर्क दे रहे हैं। धुरविरोधी पार्टियां और उसके नेता नोट बंदी के बाद उत्पन्न स्थिति की तुलना आपातकाल से कर रहे हैं।

हद हो गई… इस बात को कांग्रेस और वामपंथी भी दोहरा रहे हैं। कांग्रेस ने देश को आपातकाल से परिचय कराया तो वामपंथी ने आपातकाल के इन 21 महीने को इंज्वाय किया।

कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व में ‘पप्पू’ का बोलवाला है। उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि आपातकाल का दंश एक व्यक्ति के स्वार्थ की वजह से देशवासियों को 21 महीने तक झेलना पड़ा है। आज से 41 साल पहले देश में आपातकाल लगी थी 25 जून, 1975 को। क्यों लगी, क्योंकि इंदिरा गांधी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतने को इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अवैध करार दिया बल्कि छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दिया। इंदिरा गांधी ने पद से इस्तीफा देने के बजाय देश में अध्यादेश के जरिए आपातकाल लगा दिया।

इंदिरा ने चुन-चुनकर विरोध करने वाले नेताओं को मीसा एक्ट 1971 के तहत जेल में भेजा। इस एक्ट के तहत गिरफ्तार लोगों को न अपील का अधिकार था, न किसी तरह की दलील को कोई सुनने को तैयार था। गिरफ्तार लोगों को वकील करने का अधिकार नहीं था। और पुलिस प्रशासन चाहे तो अनिश्चितकालीन समय तक जेल में रखे। जेल का भय दिखा-दिखाकर देशभर में भ्रष्टाचार की गंगा बहाई गई। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा द्वारा घोषित आपातकाल को भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि कहा था। वर्तमान में देश में ना तो इस तरह का कोई कानून लागू है और न ही विमुद्रीकरण के पीछे नरेंद्र मोदी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ दिखता है।

आपातकाल की आड़ में गांव-गांव, शहर-शहर शिविर लगाकर जबरन नसबंदी अभियान चलाया। जबकि नरेंद्र मोदी ने गांव-गांव, शहर-शहर शिविर लगाकर बैंक परिचालन से हर व्यक्ति को जोड़ने का काम किया है। उसी गांव, गरीब, किसान, दिहाड़ी मजदूर और छोटे कारोबारियों को बैंक कर्मचारी घर-घर जाकर बैंकों से लेन-देन सीखा रहे हैं।

आपातकाल वह दौर था जब गिरफ्तारी से बचने के लिए आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तक को सिख वेश धारण करना पड़ा था। वर्तमान में तो किसी नेता को सरकार के डर से हुलिया बदलते नहीं देखा। विरोधी नेता तो न जाने क्या-क्या लानत-मनालत प्रधानमंत्री को भेज रहे हैं। इसे आपातकाल नहीं कहा जा सकता है।

आपातकाल में पुलिस एक तरह से खलनायक की भूमिका निभा रही थी। जो जहां, जिस हालत में मिला उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस के सीआईडी विभाग वालों की नजर थी। देश के नामीगिरामी राजनेताओं को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया, आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा। वे लोग हर दिन अपना ठिकाना बदलने को विवश थे। मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी की। शरद यादव, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव कैसे भूल गए।

आज के समय में राजनीतिक दलों के ज्यादातर बुजुर्ग और वरिष्ठ नेता आपातकाल के दौर के हैं। वे कैसे भूल गए आपातकाल की भयावहता को।

-दीपक राजा

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